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ज़िन्दगी गुलज़ार है

26 फ़रवरी – कशफ़


मेरी समझ में नहीं आता कि ये ज़ारून मुझ पर इतना मेहरबान क्यों होता जा रहा है. इसका रवैया मेरे साथ एवरेज़ से ज्यादा है और ऐसे रवैये बहुत जल्द स्कैंडल के रूप में सामने आ जाते हैं और वो वैसे भी इस मामलात में मशहूर है. पूरे कॉलेज में इसके अफ़ेयर की चर्चा है और उसकी इस मेहरबानी से मेरा भी इमेज तबाह हो जायेगा. लेकिन मेरी समझ में नहीं आता कि मैं उसे कैसे रोकूं.

उसके रवैये में ये तब्दीली उस दिन के बाद से आई है, जब सर अबरार की क्लास में उससे मेरी बहस हुई थी. उस वाक्ये के दूसरे दिन उसने मुझे से माज़रात (माफ़ी मांगना) की थी और मैं बहुत ख़ुश हुई थी कि चलो उसे अपने रवैये का अहसास तो हुआ. लेकिन मेरी सिक्स्थ सेंस ने मुझे खबरदार किया था कि अब मुझे किसी नई मुसीबत के लिए तैयार रहना चाहिए.

मैं उसके बारे में बहुत ज्यादा नहीं जानती, लेकिन कॉलेज में वो बहुत अक्खड़ मशहूर है. उसके बारे में कहा जाता है कि वो किसी ऐरे-गैरे को घास नहीं डालता और न ही किसी से माज़रात (माफ़ी मांगना) करता फिरता है. लेकिन अब तो मैं उससे तंग आ गई हूँ. वो कॉलेज में कहीं भी हो, मुझे देखकर विश किये बगैर नहीं गुजरता. क्लास में भी अब वो मुझे इख्तिलाफ़ (अलग राय, विरोध) नहीं करता और मेरी जान अब्र (उलझन, आफ़त) में है, क्योंकि ये सब लोगों की नज़रों में आ रहा है.

कल फ़रज़ाना ने भी मुझसे यही कहा था, “कशफ़, ज़ारून आजकल तुम पर बहुत मेहरबान हो रहा है. वरना पहले तो तुम दोनों की आपस में बनती नहीं थी.“

उसकी बात पर एक लम्हे के लिए मैं चकरा गई थी, लेकिन बज़ाहिर बड़ी लापरवाही से मैंने कहा, “फ़रज़ाना! मुझे उसकी मेहरबानी से कोई गरज़ नहीं है. अगर वो फिर क्लास में पहले की तरह अहमकाना बातें करेगा, तो मैं फिर इख्तिलाफ़ (अलग राय, विरोध) करूंगी और मैं नहीं समझती कि वो अब मुझ पर मेहरबान है. मेरे ख़याल से अब वो नार्मल है. पहले वो एब्नार्मल था. मैं क्लास को कभी भी ग्रुप्स में बांटना नहीं चाहती थी, लेकिन वो ये चाहता था. मुझे यहाँ सिर्फ़ दो साल गुजारने हैं. एक साल तो तकरीबन गुजर ही गया है और दूसरा भी गुजर ही जायेगा. और इन दो सालों बाद मुझे उनमें से किसी का भी सामना नहीं करना पड़ेगा.”

मैं अपनी बात मुक्कमल करके कमरे से निकल गई थी. मैं जानती थी कि ये सारी बातें ज़ारून तक ज़रूर पहुँच जाएंगी, क्योंकि वो उनकी ही ग्रुप में होती थी और मैं चाहती भी यही थी कि वो ये बातें ज़ारून को ज़रूर बता दे, क्योंकि मैं वाकई अब उसके रवैये से बहुत खौफ़ज़दा हूँ, क्योंकि चंद दिन पहले सर अबरार ने भी पूछ लिया था कि अब आप दोनों पहले की तरह बहस क्यों नहीं करते?

उस वक़्त तो मैंने उन्हें ये कह कर टाल दिया था कि “सर, इख्तिलाफ़ी पॉइंट्स सामने आएं, तो बहस भी की जाए, फ़िज़ूल की बहस तो मैं किसी के साथ भी नहीं करती.”

लेकिन मैं ये सोच कर और परेशान हो गई थी कि ये तबदीली सर अबरार ने भी नोट कर ली है और अब अगर कॉलेज में हम दोनों के बारे में कोई अफ़वाह फैलेगी, तो फ़ौरन यकीन कर लेंगे और मैं ये हरगिज़ नहीं चाहूंगी कि वो मुझसे बदगुमान (शक करें. बुरी धारणा रखें) हो. वो मुझे इतनी शफक़त (दरियादिली) से पेश आते हैं कि मैं उनकी बदगुमानी बर्दाश्त नहीं कर पाउंगी.

कल मैं उनकी क्लास में देर से पहुँची थी, क्योंकि मेरे सिर में सुबह से दर्द हो रहा था और पहली दो क्लासेज अटेंड करने के बाद तो दर्द की शिद्दत में और भी इज़ाफा हो गया था. मैंने सोचा कि अगर चाय के साथ एक टेबलेट ले लूं, तो आराम आ जाएगा. लेकिन चाय पीने और डिपार्टमेंट तक आते हुए मुझे इतनी देर हो गई ही कि सर अबरार क्लास में पहुँच चुके थे.

सर अबरार लेट आने वालों को बिल्कुल भी माफ़ नहीं करते और इस मामले में मैं ज़ारून जैसे चहेते स्टूडेंट्स का भी उन के हाथों हश्र होते देख चुकी थी. अभी मैं इसी सस्पेंस में थी कि क्लास में जाऊं या ना जाऊं कि सर अबरार ने मुझे दरवाज़े पर खड़ा देख लिया. फिर शायद मेरा उड़ा हुआ रंग देख कर उन्हें तरस आ गया “कशफ़ अंदर आ जाइए. आप आज कुछ लेट हो गई हैं.”

उन्होंने मुझे बैठने के लिए कहा और मैं सीट की तलाश में इधर-उधर देखने लगी. सर अबरार ने ख़ुद ही मेरी मुश्किल हल करते हुए कहा, “यहाँ बैठ जाइये, ज़ारून के बराबर वाली सीट पर.” उनके ऑफर पर मेरा रंग दोबारा फ़क्क हो गया था.

सर यहाँ?”

सर अबरार ने कुछ हैरान हो कर मुझे देखा.

जी यहाँ. वो कोई जिन्न भूत तो नहीं है, जो आपको खा जाएगा. आओ बैठ जाइये.”

लेकिन फिर भी मुझे सस्पेंस में मुब्तला (फंसा, पड़ा) देख कर उन्होंने मुस्कुरा कर कहा, “घबरा क्यों रही हैं? भाई है आपका, ज़ारून, बहन को जगह दें.”

उनकी बात पर क्लास में हल्की से खिलखिलाहटें उभरी थीं. ज़ारून ने उस चेयर पर से अपनी किताबें उठाई थी और मैं वहाँ जाकर बैठा गई थी. फिर लेक्चर नोट करते वक़्त मेरा कलम चलते-चलते रुकने लगा था. मैं २-३ बार उसे पेपर पर घसीटा मगर वो नहीं चला. इससे पहले कि मैं बैग से दूसरा पेन निकालती, ज़ारून ने अपनी फाइल से एक पेन निकालकर मेरी फाइल पर रख दिया था. मैंने चौंककर उसे देखा, मगर वो लिखने में मशरूफ़ था. मैंने वक़्त ज़ाया किया बगैर उसके दिए हुए कलम से लिखना शुरू कर दिया था, क्योंकि सर अबरार बहुत तेजी से बोलते जा रहे थे.

लेक्चर खत्म होने के बाद मैंने शुक्रिया के साथ उसे पेन लौटा दिया था, लेकिन जितनी देर वो पेन मेरे हाथ में रहा, मैंने अजीब से अहसास का शिकार रही. वो पेन बहुत कीमती था और बहुत खूबसूरत लिखाई कर रहा था. मेरे कागज़ पर बॉल पॉइंट पेन से लिखे गए अल्फ़ाज़ उससे लिखे गए लफ़्ज़ों की निस्बत (तुलना में) बहुत कमतर और घटिया नज़र आ रहे थे. बिल्कुल मेरी ज़िन्दगी की तरह. ये तो सिर्फ़ ज़ारून जैसे लोग ही हैं, जो ऐसे पेन अफोर्ड कर सकते हैं, हम जैसे नहीं. क्या कभी ऐसा होगा कि मैं भी ऐसे कलम खरीद पाऊं. यकीनन नहीं. क्योंकि मैं इतनी ख़ुश-किस्मत नहीं हूँ और ख्वाहिश सिर्फ़ ख़ुश-किस्मत लोगों की पूरी होती है.   

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2 Comments

Radhika

09-Mar-2023 04:34 PM

Nice

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Alka jain

09-Mar-2023 04:18 PM

शानदार

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